पूर्वानुमान था इस अनर्थ का
पी चिदंबरम ने इंडियन एक्सप्रेस में लिखा है कि सरकार और सीएए विरोधियों के बीच जो लड़ाई शुरू हुई थी वह सड़कों पर आ गई और युद्ध में बदल गई 23 फरवरी को एक बीजेपी नेता का अल्टीमेटम देना कि वह खुद जाफराबाद और चांदबाग की सड़कों को खाली करा लेंगे और किसी की नहीं सुनेंगे, गम्भीर साबित हुआ.
जेएनयू, जामिया मिल्लिया और एएमयू में हिंसा के नये सबूत सामने आए. दिल्ली पुलिस और उत्तर प्रदेश पुलिस की बर्बरता पर उंगलियां उठाई गईं. सुप्रीम कोर्ट के दो जजों ने असहमति व्यक्त करने वालों को देशद्रोही बताए जाने को गलत ठहराया.
केंद्र सरकार ने सीएए और एनपीआर जारी रहने की जिद दिखलायी और ध्रुवीकरण को तेज किया. एनपीआर के तहत जो सामान्य नागरिक नहीं पाए जाएंगे, वे ‘संदिग्ध’ होंगे.गैर मुस्लिम संदिग्ध लोगों को आवेदन के बाद नागरिकता दे दी जाएगी. मुसलमानों को सीएए के तहत कोई शरण नहीं मिलेगी. मुसलमानों में इस वजह से डर है. वे लाठियां खाते हुए धरना दे रहे हैं. देश की अर्थव्यवस्था पर इसका बुरा असर पड़ रहा है. विश्व में देश की छवि धूमिल हो रही है.
नफरत से होता है नुकसान
इंडियन एक्सप्रेस में तवलीन सिंह लिखती हैं कि दिल्ली के दंगों का एक संदेश है और यह संदेश प्रधानमंत्री निवास तक पहुंचना जरूरी है.नफरत की राजनीति से हमेशा हिंसा ही पैदा होती है. यह हिंसा तो रुक सकती है लेकिन जिस नफरत से यह पनपती है उसके दाग कभी नहीं मिटते हैं. नफरत जब किसी शहर के हवा-पानी में घुल जाती है तो जहर बन कर रह जाती है उस शहर की रगों में. वह लिखती हैं कि यह संदेश प्रधानमंत्री निवास तक पहुंचना इसलिए जरूरी है क्योंकि उन्होंने अब तक स्वीकार नहीं किया है कि उनके ही साथियों ने नफरत की आग लगाई थी.तवलीन सिंह लिखती हैं कि महाराष्ट्र के चुनाव के दौरान गृहमंत्री बोला करते थे कि हिंदू, सिख, ईसाई, जैन, बौद्ध या पारसी को अपनी नागरिकता गंवाने को कोई चिंता नहीं होनी चाहिए. सिर्फ मुसलमानों का नाम नहीं लेते थे.
इस बात को मुसलमान समाज समझ गया.जब धर्म के आधार पर देश में पहली बार नागरिकता कानून में संशोधन लाया गया, तो संदेश आम मुसलमानों तक पहुंच गया. विरोध 15 दिसंबर से जामिया से फूटा. वहां हुई ज्यादतियों के विरोध में शाहीन बाग की महिलाएं धरने पर बैठ गयीं. लेखिका ने अपने अनुभवों से बताया कि शाहीन बाग की महिलाएं जानती हैं कि सीएए से मुसलमानों की नागरिकता को खतरा नहीं है लेकिन असल खतरा उस एनआरसी से है जो बाद में होने वाला है.
गृहमंत्री बार-बार कह चुके हैं कि सीएए देशभर में होकर रहेगा. प्रधानमंत्री रामलीला मैदान से भरोसा दे रहे हैं कि फिलहाल एनआरसी लाने का कोई प्रयास नहीं कर रही है उनकी सरकार. दिल्ली चुनाव के दौरान चुनाव आयोग ने नफरत फैलाने वाले नेताओं पर कार्रवाई की, लेकिन दिल्ली पुलिस चुपचाप रही. नफरत फैलती रही जो अमेरिकी राष्ट्रपति के आने पर फूट पड़ी.
दिल्ली दंगा : पुलिस ने खो दी स्वायत्तता?
मार्क टुली हिन्दुस्तान टाइम्स में दिल्ली में हुए दंगों के बीच सवाल उठाते हैं कि क्या दिल्ली पुलिस की स्वायत्तता खत्म हो गयी है? वे लिखते हैं कि सीएए के विरोध में प्रदर्शनों के बीच दिल्ली पुलिस की असफलता कोई आश्चर्यजनक बात नहीं है कि वह कानून का शासन सम्भालने में नाकाम रही. राजनीतिज्ञ अथक तरीके से संस्थानों की स्वायत्तता पर हमले करते रहे और पुलिस अफसर, नौकरशाह सभी बेबस बने रहे. इंडियन पुलिस फाउन्डेशन के चेयरमैन और पूर्व पुलिस अधिकारी प्रकाश सिंह को उद्धृत करते हुए वे लिखते हैं- पुलिस की ओर से अलग-अलग तरह की प्रतिक्रियाएं बताती हैं कि वह सत्ताधारी पार्टी की ओर झुकी रही.
एक अन्य पूर्व पुलिस अधिकारी किरपाल सिंह ढिल्लो ने अपनी किताब ‘पुलिस एंड पॉलिटिक्स’ में ध्यान दिलाया है कि आजादी के समय जो स्वायत्तता दिल्ली पुलिस बल को दी कि वह जनता की सेवा करे, वह सरकार की सेवा में औपनिवेशिक बल बनकर रह गया.
मार्क टुली लिखते हैं कि जिस शाहीन बाग के प्रदर्शन को सत्ताधारी दल ने अपना मुख्य चुनावी मुद्दा बनाया था, वहां पहुंचे पूर्व मुख्य सतर्कता आयोग वजाहत हबीबुल्लाह ने सुप्रीम कोर्ट में हलफनामा देकर बताया है कि प्रदर्शनकारियों पर सड़क बंद करने का इल्जाम गलत तरीके से लगाया गया है.
सच यह है कि खुद पुलिस ने बेवजह सड़क को जाम कर रखा है. लेखक याद दिलाते हैं कि 1977 में जनता पार्टी की सरकार ने नेशनल पुलिस कमीशन बनाया था जिसने कबूल किया था कि पुलिस पर राजनीतिक नियंत्रण की कोशिश ने कानून के शासन और पुलिस की विश्वसनीयता को भारी नुकसान पहुंचाया है.
मगर, इस रिपोर्ट पर कभी आगे विचार नहीं हुआ. लेखक ने उदाहरण दिया है कि हिमाचल प्रदेश में सबसे ज्यादा तबादले इसलिए हुए क्योंकि पुलिस अफसर ने स्थानीय नेताओं के चालान काटे. दिल्ली पुलिस के अफसरों का तबादला देश के किसी भी हिस्से में किया जा सकता है. लेखक ने सवाल किया है कि क्या इसी डर से दिल्ली पुलिस के अफसर सक्रिय नहीं हो पाए, जिसका नतीजा रहा दिल्ली में हुआ भयानक दंगा?
वैश्विक आलोचना से कैसे लड़ेगा भारत?
हिन्दुस्तान टाइम्स में चाणक्य इस बात पर चिंता जताते हैं कि दुनिया में अपनी गिरती छवि को भारत किस तरह से सम्भालेगा. वे लिखते हैं कि ज्यादातर भारतीय नहीं जानते कि रोजर वाटर्स कौन है या पिंक फ्लॉयड क्या है जिसके रोजर संस्थापक हैं. इसी तरह जॉन कुसाक और जॉन ओलिवर के बारे में भी लोग नहीं जानते. मगर, इन सबने हाल के दिनों में सीएए, दिल्ली में सांप्रदायिक दंगे या अन्य कारणों से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की आलोचना की है. मोदी सरकार अंतरराष्ट्रीय स्तर पर तीन कारणों से आलोचना झेल रही है- कश्मीर मुद्दा, सीएए विरोधी प्रदर्शन और हाल में दिल्ली में हुआ दंगा.चाणक्य लिखते हैं कि भारत की लगातार गिरती अर्थव्यवस्था ने स्थिति को और खराब बनाया है. कश्मीर में हिरासत में लिए गये नेताओं को पब्लिक सेफ्टी एक्ट के तहत कैद रखना, जिसकी अवधि दो साल तक हो सकती है, दुनिया को चिंतित कर रही है.
केंद्र सरकार की ओर से सीएए का विरोध कर रहे लोगों से बातचीत नहीं करना भी चिंता का सबब है.सीएए के विरोध के बीच यूपी में 23 लोगों का मारा जाना और दिल्ली में उपजा सांप्रदायिक दंगा और उस दौरान पुलिस की भूमिका ने भी सवाल खड़े किए हैं. निश्चित रूप से कूटनीतिक रूप से आलोचनाओं से निपटा जाना चाहिए. मगर, इसमें संदेह नहीं कि दुनिया के कारोबारी, कलाकार, संगीतकार, टीवीएंकर, नेता और खिलाड़ियों की प्रतिक्रियाओं को रोका नहीं जा सकेगा. बिहार में होने जा रहे चुनाव से भी कुछ दिशा निर्देश केंद्र सरकार को मिल सकता है क्योंकि बीजेपी बिहार में भी सत्ताधारी गठबंधन का हिस्सा है.
कहीं पूरा देश न हो जाए ‘स्पाइनलेस’
टाइम्स ऑफ इंडिया में शोभा डे महसूस करती हैं कि उनकी रीढ़ की हड्डी यानी स्पाइन में दर्द है. वह परेशान है मगर खुश भी है कि कम से कम उनके पास स्पाइन है. फिर वह चिंतित भी हो जाती है कि दर्द से कराहते हुए वह इस स्पाइन का क्या करे अगर दिल्ली में हजारों नागरिकों को खोजा जा रहा हो, निशाना बनाया जा रहा हो, मस्जिद फूंक दिए गये हों और नेता भड़कीले नारों के साथ जुलूस निकाल रहे हों? शोभा डे लिखती हैं कि मुसलमान बोरिया-बिस्तर के साथ अपने गृहनगर की ओर जाते दिख रहे हैं, पीड़ित परिवार अपने परिजनों के अंतिम संस्कार में लगे हैं. इन सबके बीच दिल्ली के लोग धार्मिक मतभेदों को भूलकर दिखाते हैं कि उनके पास रीढ़ की हड्डियां हैं. वे मानव श्रृंखला बनाकर स्कूली बच्चों की दंगाइयों से रक्षा करते हैं.
दिल्ली के दंगे को कुछ लोग 1984 के सिख दंगे से जोड़कर देख रहे हैं तो कुछ लोग गुजरात के दंगों से. लेखिका को लगता है कि अमेरिकी राष्ट्रपति के सम्मान में राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद के घर दिए गये भोज में जो लोग शामिल होने पहुंचे, उनके पास रीढ़ की हड्डी नहीं थी और वे आत्मसम्मान भी घर छोड़कर वहां पहुंचे थे. वह लिखती हैं कि रीढ़ की हड्डी वाले व्यक्ति जस्टिस मुरलीधरन दिखे जिनका रातों रात तबादला कर दिया गया. लेखिका की सलाह है कि जब स्थिति सामान्य हो तो सभी अपने-अपने स्पाइन चेक करें. उन्हें डर है कि कहीं पूरा देश स्पाइनलेस न हो जाए.
शाह से इस्तीफा ले सकेंगे मोदी?
रामचंद्र गुहा ने टेलीग्राफ में लिखा है कि दोबारा चुनाव जीतने के बाद जब कैबिनेट बन रही थी तो वे अपने एक उद्यमी साथी के साथ थे. उनकी कामना यही थी कि अमित शाह किसी भी तरह से वित्तमंत्री ना बनें. उनकी कामना तो कायम रही, उद्योग जगत ने भी राहत की सांस ली, लेकिन गृहमंत्री बन गये अमित शाह. शाह में पार्टी के लिए फंड जुटाने, जाटवों को गैर जाटवों से अलग करने, यादवों को गैर यादवों से जुदा करने और ऐसी ही दक्षता रही थी.मगर, प्रश्न यह था कि मुस्लिम विरोधी भावना दिखाते रहे अमित शाह गृहमंत्री कैसे हो सकते थे? गुहा लिखते हैं कि वित्तमंत्री के तौर पर निर्मला सीतारमन को पाकर उद्यमी खुश नहीं भी थे तब भी राहत महसूस कर रहे थे कि इस रूप में अमित शाह तो नहीं मिले. शाह ने धारा 370 हटाया और नागरिकता संशोधन कानून पारित कराया. भारतीय समाज का साफ तौर पर ध्रुवीकरण हुआ. धारा 370 हटाते वक्त इसे आतंकवाद से मुक्ति की वजह बताया गया तो सीएए लाते वक्त कहा गया कि इससे मुसलमानों को कोई खतरा नहीं है.
गृहमंत्री बोलते रहे कि सीएए के बाद एनआरसी होगा. पीएम ने एनआरसी की बात को नकारा. गुहा और उनके साथी ने नेहरू और वीके कृष्ण मेनन की जोड़ी की तुलना मोदी-शाह से की.मेनन को सन् 62 के चीन युद्ध में करारी हार के बाद इस्तीफा देना पड़ा था. चाहकर भी नेहरू उन्हें नहीं बचा पाए थे. क्या अमित शाह अपनी असफलताओं के लिए इस्तीफा देंगे? यह मां अब उठने लगी है. देखना यह है कि नरेंद्र मोदी इस मांग का कितना सम्मान कर पाते हैं.
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