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यह देश बस इसलिए खुशहाल नज़र आ रहा है कि इस देश की बहुत बड़ी आबादी के अंदर मानवीय संवेदना बची नहीं है

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दरअसल यह देश अपने गरीब लोगों के साथ बहुत क्रूर है. वह उन सारी अनियमितताओं से सीधे आंख मूंदे रहता है जो उस पर असर नहीं करतीं. बहुत सारी अनियमितताओं को वह बढ़ावा देता है जिसका फ़ायदा उसे मिलता है. नियमों की अनदेखी कर बरसों से चल रहा दिल्ली का कारख़ाना भी इसी कार्यसंस्कृति की उपज होगा, इसमें किसी को संदेह नहीं होना चाहिए.

दिल्ली के एक जाने-माने बाज़ार में चल रहे एक कारख़ाने में आग लगती है और 43 लोगों की मौत हो जाती है. वजह सामने आती है- शॉर्ट सर्किट. यह भी पता चलता है कि ये सारे मज़दूर काम करने के बाद वहीं सो जाते थे और मालिक बड़ी चौकसी से सारे खिड़की-दरवाज़े इस तरह बंद रखता था कि उसका कोई सामान चोरी न जा सके. आग लगने के बाद फिर से सब लोग याद कर रहे हैं कि कारख़ाना बिना अग्निशामक विभाग की मंज़ूरी के चल रहा था, कि वह ऐसी जगह था जहां दमकलकर्मी आसानी से काम नहीं कर पा रहे थे. दिल्ली के पुराने बाज़ारों और मंडियों में झूलते तार जिसने देखे होंगे, उसे इस बात पर अचरज करना चाहिए कि आख़िर यहां हर रोज़ शॉर्ट सर्किट क्यों नहीं होता.

गरीब लोग इतना झेलते क्यों हैं? वे अपना बिहार-यूपी छोड़ कर ऐसे कारख़ानों में काम करने क्य़ों आते हैं? क्योंकि हमने उन गांवों-देहातों और शहरों को भी इस लायक नहीं छोड़ा है कि वहां रहते हुए ये लोग अपने जीवन की बुनियादी ज़रूरतें भी पूरी कर सकें. वे बस इस उम्मीद में दिल्ली आते हैं कि यह शहर चाहे जितना खटाए, यह उन्हें पैसा देगा, भविष्य की थोड़ी सी राहत देगा, टूट रहे घरों को जीने का कुछ सामान देगा. लेकिन एक रात लगभग अमानवीय स्थितियों में सोए हुए ये लोग आग में जल कर मारे जाते हैं और उसके बाद जैसे हर कोई हैरानी से पूछता है कि अरे यह कारख़ाना इस तरह कैसे चल रहा था.

इन मारे गए लोगों और इनके परिवारों की कहानी यहीं ख़त्म नहीं होने जा रही. इनके लिए जो मुआवज़ा तय किया गया है, वह इन लोगों को आसानी के साथ मिल जाएगा- यह बात भी संदिग्ध है. ऐसे गरीब लोगों से दूर खड़ी सरकारी व्यवस्था को बिल्कुल अगवा कर चल रही दलाल संस्कृति के गिद्ध यहां भी इकट्ठा हो जाएंगे जो गरीबों को भरोसा दिलाएंगे कि कुछ कमीशन लेकर वे उनका मुआवज़ा निकलवा सकते हैं.

सितम यहीं तक बाक़ी नहीं है. अब अचानक ऐसे कारख़ानों और उद्यमों की धरपकड़ शुरू होगी जहां क़ानूनों का पालन नहीं किया जा रहा है. कई कारख़ाने बंद हो जाएंगे. उनके मालिक फिर भी इसका बोझ सह लेंगे, मार उन मज़दूरों पर पड़ेगी जो ऐसी जगहों पर काम करने को मजबूर होते हैं.

सवाल है तो क्या ऐसे अनियमित कारख़ाने चलते छोड़ दिए जाएं? जाहिर है, नहीं. किसी भी क़ानूनी व्यवस्था में ऐसी किसी बात का बचाव नहीं किया जा सकता. लेकिन दरअसल यहीं से कुछ मुश्किल सवाल शुरू होते हैं जिनका सामना करने से हम भारतीय राष्ट्र राज्य के नागरिक अक्सर कतराते हैं. क्या हमारी क़ानून व्यवस्था इस देश के गरीबों के प्रति बराबरी का भाव रखती है? अगर रखती होती तो एक छोटे से तबके को इतने संसाधन, इतनी छूटें और इतनी आज़ादियां नहीं होतीं कि वह एक बहुत बड़े तबके को पहले उनके इलाक़े से विस्थापित होने पर मजबूर करे और दिल्ली के एक तंग कारखाने में उनको सोने और जलने के लिए छोड़ दे.

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सच तो यह है कि इस देश के गरीब आदमी इस देश के विकास की सबसे ज़्यादा क़ीमत चुकाता है और कई बार क़िस्तों में चुकाता रहता है. हवाई अड्डे बनते हैं तो उसके खेत उजड़ते हैं, सड़कें बनती हैं तो उसकी झुग्गियां उजड़ती हैं, कारख़ाने बनते हैं तो उसकी ज़मीन जाती है. बदले में उसको सिर्फ़ विस्थापन मिलता है और यह विस्थापन लगातार चलता रहता है.

बल्कि महानगरों में यह पैटर्न बहुत साफ़ दिखाई पड़ता है कि एक बहुमंज़िला इमारत बनती है तो एक झुग्गी बस्ती भी खड़ी हो जाती है. जब उस इमारत का काम पूरा हो जाता है तो फिर वह झुग्गी बस्ती उजाड़ दी जाती है- इस तर्क पर कि वहां दूसरी इमारत बनाई जानी है. एक सरकार अपनी सनक में नोटबंदी घोषित करती है तो उसकी मार भी यही गरीब झेलते हैं. ये सिलसिला जैसे ख़त्म होता ही नहीं.

जब आग लगी तो लोगों को अपने याद आए. अपने- यानी मां-बाप, रिश्तेदार और दोस्त. यहां कोई धर्म और ईश्वर उनके साथ नहीं था. मरने से पहले मोहम्मद मुशर्रफ़ ने अपने दोस्त मोनू अग्रवाल को बिजनौर फोन किया- कहा, मेरे परिवार का खयाल रखना. तब उसे याद नहीं आया कि मोनू तो हिंदू है, उसे किसी मुस्लिम को आवाज़ देनी चाहिए. इस देश के हुक्मरान यही सिखाना चाहते हैं,लेकिन हज़ार सालों की आदतों का मारा ये देश यह सीखने-समझने को आसानी से तैयार नहीं होता.

सरकारें क्या करती हैं? वे नागरिकता बिल पर बहस करती हैं. जो सरकारें अपने नागरिकों को गरिमापूर्ण या सम्मानजनक तो दूर, सुरक्षित जीवन तक नहीं दे पातीं, जो सरकारें रोहिंग्या शरणार्थियों को बिल्कुल स्वीकार करने को तैयार नहीं होतीं, वे चाहती हैं कि पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफगानिस्तान से आए अवैध नागरिकों को यहां नागरिकता दी जाए.

विरोध इनकी भी नागरिकता का नहीं होना चाहिए. लेकिन क्या हम किसी को भी गरिमापूर्ण जीवन देने की स्थिति में हैं? शायद नहीं. यह देश बस इसलिए चल और खुशहाल नज़र आ रहा है कि इस देश की बहुत बड़ी आबादी खाते-पीते, नाचते-गाते जांबियों में बदल गई है,उसके भीतर कोई मानवीय संवेदना नहीं बची है.

उसे अधिकतम अपने वर्गीय हितों की चिंता है और पुरानी बाड़ेबंदियों को बचाए रखने का खयाल है. यही वजह है कि दिल्ली के एक कारखाने में आग से जल कर मारे गए लोग अगले दिन नहीं, उसी दिन भुला दिए जाते हैं और देश किसी अगले हादसे तक अपनी जानी-पहचानी निर्रथक बहसों में डूब जाता है.

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Thought of Nation राष्ट्र के विचार
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